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Makar Sankranti 2025: 400 साल पुराना है जयपुर का पतंगबाजी इतिहास, उड़ती थीं चांदी-सोने के घुंघरू लगी मखमली पतंगें

जयपुर के काइट फेस्टिवल का इतिहास 400 सालों से भी पुराना है और ये फेस्टिवल देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में फेमस है.
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Makar Sankranti 2025: देशभर में आज मकर संक्रांति की धूम है जहां दान-पुण्य के इस दिन को लोग आस्था की डुबकी लगाकर मना रहे हैं. वहीं घरों की छतों पर गुड़-तिल की मिठास के साथ पतंगबाजी का जोश भी जोरों पर है. राजस्थान की राजधानी जिसे छोटी काशी भी कहा जाता है वहां का इतिहास त्योंहार और कई तरह की परंपराओं से फलता-फूलता रहा है जहां पतंगबाजी (Makar Sankranti 2025) को लेकर लोगों का क्रेज आज का नहीं सैकड़ों सालों पुराना है.

जयपुर के काइट फेस्टिवल का इतिहास 400 सालों से भी पुराना है और ये फेस्टिवल देश ही नहीं बल्कि दुनियाभर में फेमस है. पिंक सिटी के काइट फेस्टिवल में हर साल की तरह देश-दुनिया से लोग शामिल होकर पतंगबाजी का लुत्फ उठाते हैं. बताया जाता है कि जयपुर शहर की बसावट से पहले आमेर में पतंगबाजी शुरू हो गई थी.

तत्कालीन मिर्जा राजा जयसिंह (1622 से 1666 तक) के समय से लोग पतंगबाजी का आनंद लेते रहे हैं. आइए जानते हैं कि 400 सालों से चली आ रही ये परंपरा क्यों खास है और सैकड़ों सालों पहले किस तरह की पतंगें जयपुर के आसमान में चार चांद लगाती थी.

सवाई रामसिंह ने बनवाया था पतंग का कारखाना

बता दें कि राजस्थान में पतंगबाजी की परंपरा 400 सालों से चली आ रही है जहां तत्कालीन मिर्जा राजा जयसिंह के समय पतंगें उड़ाने के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं. इतिहासकार बताते हैं कि 19वीं शताब्दी में सवाई रामसिंह ने पतंग उड़ाने का चलन शुरू किया था जहां उन्हें पतंगबाजी का इतना शौक था कि उन्होंने अपने जो 36 कारखाने बनवाए थे उसमें एक कारखाना पतंगों का भी था.

जानकारी है कि उस जमाने में पतंगों को तुक्कल कहा जाता था और सवाई रामसिंह पतले मखमली कपड़े की चांदी-सोने के घुंघरू लगी पतंगें चन्द्रमहल की छत से उड़ाया करते थे. वहीं इसके बाद पतंग उड़ाने की इस परंपरा को माधोसिंह द्वितीय, मानसिंह द्वितीय ने भी बराबर आगे बढ़ाया था.

हर उम्र से जुड़ा पतंगबाजी का कनेक्शन

बता दें कि महाकवि बिहारी ने अपनी प्रसिद्ध रचना बिहारी सतसई में भी पतंगबाजी का जिक्र किया है जिसमें लिखा है 'गुड़ी उड़ी लखि लाल की, अंगना-अंगना मांह..बौरी लौं दौरी फिरति, छुवति छबीली छांह।’ जिसका मतलब है कि अपने महबूब को पतंग को उड़ाते देख महबूबा अपने आंगन में उस पतंग की पड़ने वाली छाया को छूने के लिए दौड़ लगाती है.

इसके अलावा साल बीतने के साथ ही पतंगों का आकार और नाम बदलते गए लेकिन लोगों का पतंगबाजी का जुनून बढ़ता ही गया. पहले जहां कपड़े की पतंगें बनती थी और फिर कागज की पतंगें बनने लगी. इसके अलावा श्रीरामजी, रामदरबार, हनुमानजी और देश-विदेश के नेताओं, फिल्म स्टार के चेहरों पर भी पतंगें बनाई जाने लगी.

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