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Independence Day 2024: राठ के क्रांतिकारी रुद्रदत्त मिश्रा ने लड़ी थी आजादी की लड़ाई, 5 साल तक जेल में रहने पर भी नहीं मानी हार

Independence Day 2024: कोटपूतली। 15 अगस्त 2024 को भारत अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। इस मौके पर दिल्ली के लाल किले पर पीएम नरेंद्र मोदी 11वीं लगातार तिरंगा फहराकर देश को संबोधित करेंगे। भारत को आजाद कराने के...
08:38 AM Aug 14, 2024 IST | Himanshu Sain

Independence Day 2024: कोटपूतली। 15 अगस्त 2024 को भारत अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। इस मौके पर दिल्ली के लाल किले पर पीएम नरेंद्र मोदी 11वीं लगातार तिरंगा फहराकर देश को संबोधित करेंगे। भारत को आजाद कराने के लिए स्वतंत्रता सेनानियों की अहम भूमिका रही है। इस खबर में हम आपको ऐसे क्रांतिकारी के बारे में बताएंगे जिन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। बता दें कि 1920 में चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में उत्तर भारत के कांतिकारियों ने आजादी की जिस मुहिम को शुरू किया था उसमें राठ के क्रांतिकारी रुद्रदत्त मिश्रा की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। रुद्रदत्त उन क्रांतिकारियों में सम्मिलित थे, जिन्होंने राजगुरु, सुखदेव, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, विशंभर दयाल की शहादत के बाद भी क्रांतिकारी मार्ग को नहीं छोड़ा था।

ब्रिटिश सरकार मानती थी खतरनाक

क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण रुद्रदत्त मिश्रा को ब्रिटिश सरकार खतरनाक मानती थी। ब्रिटिश सरकार ने उनको क्रांतिकारी जीवन काल के दौरान 5 साल तक विभिन्न जेलों में डाला था। राठ के इतिहासकार डॉ प्रेमपाल यादव ने रुद्रदत्त के क्रांतिकारी जीवन काल पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि रुद्रदत्त मिश्रा का जन्म 31 जुलाई 1911 को गोड ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम मातादीन था जो उस समय ब्यावर में लिपिक का कार्य करते थे। रुद्रदत्त पर पिता का साया सिर्फ सात साल तक ही रहा। उनके पिता के निधन पर नाना ने ही रुद्रदत्त का पालन-पोषण किया।

क्रांतिकारी बातों से हुए प्रभावित

रुद्रदत्त अपने बाबा आनंद के पास 1927-28 में ग्वालियर चले गए। यहां पर उनकी मुलाकात क्रांतिकारी विचारधारा के एक व्यक्ति रामनारायण से हुई जो कि पूर्व में रामप्रसाद बिस्मिल के साथ काम कर चुके थे। रामनारायण ने ही उन्हें पहली बार काकोरी कांड और क्रांतिकारी दल के बारे में जानकारी दी। रुद्रदत्त इस जानकारी से काफी प्रभावित हुए और उनके मन में देश को आजाद करने की धुन सवार हो गई। एक वर्ष पश्चात रुद्रदत्त अजमेर लौट आए। यहां उन्होंने अपने साथी रामचंद्र और जगदीश दत्त व्यास के साथ मिलकर एक क्रांतिकारी दल बनाया। अजमेर में इन युवा क्रांतिकारियों के जोश को देखकर अर्जुन लाल सेठी बहुत प्रभावित हुए और सेठी ने इनका संपर्क हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी नामक क्रांतिकारी दल से करा दिया।

क्रांतिकारियों से हुआ संपर्क

रुद्रदत्त का दल से संपर्क होने के बाद भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, कुंदन लाल, मदन गोपाल यादव, कैलाशपति, विशंभरनाथ, विमलप्रसाद जैन, प्रो नंदकिशोर निगम, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, वैशंपायन सरीखे से हो गया। रुद्रदत 1930 में अजमेर के राजकीय महाविद्यालय में विद्यार्थी थे, तब उन्हें क्रांतिकारियों का निर्देश मिला कि वह दिल्ली जाकर काम करें। निर्देश मिलते ही रूद्रदत्त अपनी पढ़ाई-लिखाई बीच में ही छोड़कर दिल्ली पहुंच गए और संगठन के निर्देशानुसार बम, पिस्तौल, गोला, बारूद आदि सामान क्रांतिकारियों को इधर से उधर पहुंचाने लगा। पुलिस की पकड़ से स्वयं को दूर रखने के लिए उस समय क्रांतिकारी छद्म नाम से कार्य करते थे।

रुद्रदत्त का छद्म नाम 'कैलाश' था। उसे क्रांतिकारी इसी नाम से संबोधित करते थे। अंग्रेजी शासन में अजमेर क्रांतिकारियों के लिए सुरक्षित माना जाता था। यहां क्रांतिकारियों का सबसे बड़ा केंद्र या गुप्त अड्डा आना सागर के किनारे आंतेड़ की पहाड़ियों में स्थापित था। यह जगह ऐसी थी कि जरा सा भी खटका होने पर यहां जमा होने वाले क्रांतिकारी फौरन इधर-उधर की पहाड़ियों में बिखर जाते थे। इस केंद्र का संचालन मदन गोपाल यादव और उनके साथी रूद्रदत्त, रामचंद्र बापट, जगदीश चंद्र शर्मा, प्रकाश चंद भार्गव आदि करते थे। यह केंद्र दूध की डेयरी के रूप में काम करता था, जिसमें बहुत सी भैंसे रखी हुई थी।

क्रांतिकारियों को दी जाती थी ट्रेनिंग

यहां पर क्रांतिकारियों को बंदूक, पिस्तौल और रिवाल्वर चलाने की ट्रेनिंग दी जाती थी। चंद्रशेखर आजाद और उनके साथी गुप्त मंत्रणा के लिए अक्सर यहां आया करते थे। वहीं लिखा कि राजगुरु, सुखदेव, भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद एचएसआरए दल भविष्य की रणनीति पर कार्य कर ही रहा था कि इसी दौरान कैलाशपति जो दल का एक प्रमुख सदस्य था, पुलिस के हत्थे चढ़कर सरकारी गवाह बन बैठा। कैलाशपति ने ब्रिटिश सरकार को क्रांतिकारियों की सभी गोपनीय जानकारियां दे दी। जिसका परिणाम यह निकला कि क्रांतिकारियों की देशभर में गिरफ्तारियां हुई। चूंकि रूद्रदत्त भी क्रांतिकारी घटनाओं में सम्मिलित रहा था, अतः उसे भी 11 नवंबर 1930 में गिरफ्तार कर लिया गया। यह रूद्रदत्त की पहली गिरफ्तारी थी। गिरफ्तार क्रांतिकारियों पर सम्मिलित रूप से 'दिल्ली षड्यंत्र केस' नाम से मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमें में वायसराय की स्पेशल ट्रेन को बम से उड़ाने, गाड़ोदिया स्टोर में डकैती, छः हजार बम रखने, भारत के सम्राट के तख्त को उलटने इत्यादि जैसे संगीन आरोप लगाए थे।

रुद्रदत्त के साथ किया बुरा व्यवहार

अंग्रेजों के द्वारा जेल में बंद क्रांतिकारियों के साथ बुरा व्यवहार करते थे। रुद्रदत्त की गिरफ्तारी के बाद भी उसके साथ भी यहीं व्यवहार किया गया। तत्कालीन समाचार-पत्रों से विदित होता है कि रुद्रदत्त को काल कोठरी में हिलने तक नहीं दिया जाता था। उसे न नहाने दिया जाता था और न ही कपड़ा बदलने दिया जाता था। जो कंबल उसे दिए गए थे, वे भी बिल्कुल कटे-फटे थे। उसके कपड़े बर्बाद कर दिए गए थे। इस प्रकार रुद्रदत्त का मनोबल तोड़ने का अंग्रेजों ने भरसक प्रयास किया। लेकिन राठ के लड़के का वे मनोबल नहीं तोड़ पाए। रुद्रदत्त एक निडर प्रवृत्ति का व्यक्ति थे। दिल्ली षड्यंत्र केस का मुकदमा जब कोर्ट में चल रहा था। उस समय डिप्टी सुपरीटेंडेंट पुलिस सरदार बहादुर भागसिंह के अपशब्द बोलने पर रुद्रदत्त ने कोर्ट में ही उस पर थप्पड़ों की बौछार कर डाली। इस अपराध में रुद्रदत्त को दो वर्ष की सजा हुई और 500 रुपए का जुर्माना। बाद में सरकार ने 1933 में विशेष कारणों से बाध्य होकर रुद्रदत्त पर से षड्यंत्र केस हटा लिया।

जेल से बाहर आने के बाद दोबारा शुरू की गतिविधियां

रुद्रदत्त मिश्रा जब जेल से बाहर आए तो दोबारा अपनी गतिविधियों में जुट गया। इस समय उन्होंने अपनी गतिविधियों का केंद्र लाहौर बनाया। लाहौर उस समय एचएसआरए दल का मुख्य केंद्र हुआ करता था। बाद में रुद्रदत्त ने लाहौर के डीएवी कॉलेज में एडमिशन ले लिया। जैसे ही पंजाब के गवर्नर को रुद्रदत्त की इन गतिविधियों की जानकारी मिली, वैसे ही उसने चौबीस घंटे का नोटिस देकर रूद्रदत्त को लाहौर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। लाहौर के बाद रुद्रदत्त दल के दूसरे केंद्र बनारस पहुंच गया और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। यहां रहते हुए उसने शंभू नारायण के जरिए अजमेर के क्रांतिकारियों के लिए हथियार भेजने की व्यवस्था की। दुर्भाग्य से शंभूनारायण अजमेर रेलवे स्टेशन पर पकड़ा गया। इस प्रकरण में रूद्रदत्त को बनारस से गिरफ्तार करके अजमेर लाया गया। इस केस में रुद्रदत्त को दो वर्ष की सजा सुनाई गई और उसे अजमेर शासन के लिए बहुत खतरनाक माना गया।

डोगरा प्रकरण में भी किया गिरफ्तार

डोगरा प्रकरण में भी रुद्रदत्त को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन बाद में उसे छोड़ दिया गया। 1940 में उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से भारतीय एवं आधुनिक चिकित्सा पद्धति का 6 वर्ष का कोर्स करके एएमएस की डिग्री प्राप्त की। क्रांतिकारी घटनाओं के आश्वासन के बाद रूद्रदत्त ने अध्यापन का पेशा अपना लिया। अंग्रेज रूद्रदत्त के अध्यापन कार्य से भी भयभीत रहते थे। इसलिए उन्होंने रुद्रदत्त को कहीं भी स्थाई तौर पर काम नहीं करने दिया। रुद्रदत्त को स्थाई तौर पर नौकरी करने का अवसर देश की आजादी के बाद ही मिला। स्वतंत्रता के इस अमर पुरोधा का निधन 4 जनवरी 1980 में हुआ।

अपनी मौसी की कनपटी पर तान दी थी बंदूक

रुद्रदत्त अपने पिता के निधन के बाद नाना के घर अजमेर रहने लग गए थे। क्रांतिकारी संगठन में उनकी भूमिका शस्त्रों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने की थी। अतः शस्त्र रखना रुद्रदत्त के लिए आम बात हो गई थी। लेकिन वह इन शस्त्रों को अपने घर पर छुपा कर रखते थे। एक बार दीपावली के समय सफाई करने के दौरान टांड से वे शस्त्र उसकी मौसी को मिल गए। मौसी डर गई और पुलिस को इसकी सूचना देनी चाही। जैसे ही रूद्रदत्त को इसका पता चला तो उसने मौसी के हाथ से पिस्तौल छीन ली और देशभक्ति के जुनून में वह पिस्तौल मौसी की ही कनपटी पर लगा दी और मौसी को चेतावनी देते हुए कहा कि 'यदि आपने यह खबर पुलिस को दी तो मैं तुम्हें इसी पिस्तौल से जान से मार दूंगा।' इस प्रकार रूद्रदत्त आजादी के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने को तैयार रहता था।

भीमराज स्कूल में शिक्षक का कार्य भी किया था

क्रांतिकारी गतविधियों के साथ-साथ रुद्रदत्त ने अपने अध्ययन को भी जारी रखा था। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एएमएस की डिग्री प्राप्त की। क्रांतिकारी संगठन के विघटने के बाद उन्होंने शिक्षण कार्य करने का काम शुरू कर दिया। 1941 में वे लश्कर के राजकीय आयुर्वेदिक कॉलेज में अध्यापक हो गए। 1942 में रुद्रदत्त लश्कर से अपनी गृह रियासत अलवर आ गए। यहां उन्होंने कुछ समय तक बर्डोद के राजकीय भीमराज हाई स्कूल में शिक्षक की नौकरी की। लेकिन थोड़े ही दिनों में ब्रिटिश सरकार की पुलिस को इसका पता चल गया और अंग्रेजी शासन के दबाव के कारण रुद्रदत्त को यहां नौकरी से निकाल दिया गया। इसके बाद रूद्रदत्त पुनः अजमेर चले गए।

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