यहां दहेलवालजी की सवारी देख सब हो जाते है आश्चर्यचकित, जानें क्या है ऐसा अनोखा
Bundi’s Vibrant Tejadashmi Festival: (रियाजुल हुसैन) बून्दी। जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर तलवास क्षेत्र के आँतरदा गांव में शुक्रवार को तेजादशमी के अवसर पर दहेलवाल जी महाराज की देह रूपी सवारी देख लोग हैरत में पड़ गए। इसके साथ ही 145 सालों से चली आ रही आध्यात्मिक, अलौकिक सवारी निकलने की परम्परा का निर्वाह हुआ। इस दौरान बड़ी संख्या में महिला पुरुषों की भीड़ जमा थी। ग्रामीणों की अलग अलग टोलिया अलगोजो और वाद्य यंत्रों की सुरीली धुनों पर तेजाजी गायन करती नजर आ रही थी। जोर शोर से बज रहे लोकगीतों से सारा माहौल लोक संस्कृति से भरा हुआ दिखाई दे रहा था।
सवारी की शुरुआत
सुबह से ही गांव में विशेष तैयारी चल रही थी। दोपहर दो बजे, सभी श्रद्धालु गढ़ चौक पर इकट्ठे हुए। पंच पटेल और गांव के प्रमुख लोग भोपा के भाव के अनुसार तलवास रोड पर खेड़ी मोड़ के आगे दड़ा के भैरू जी महाराज स्थान के लिए रवाना हुए। सवारी के साथ पूजा के सामान, अलगोजे, वाद्य यंत्र, गद्दी, झालर, केवड़ा, बाजोट, झण्डी, और छड़ी ले जाई गई।
पूजा और मान मनुहार
सवारी जब बताई गई जगह पर पहुंची, तो वहां दहेलवाल जी देह रूपी सर्प के रूप में एक हिंगोटिया के पेड़ पर विराजमान थे। पंच पटेलों ने विधिपूर्वक पूजा की और मान मनुहार की। इस दौरान मंडलियों ने अलगोजो और वाद्य यंत्रों की धुनों पर तेजाजी के गीत गाए। ग्रामीणों ने जयकारे लगाते हुए दहेलवाल जी महाराज से आशीर्वाद प्राप्त किया।
सवारी का स्वागत
साढ़े तीन बजे, देह रूपी सर्प भोपा के साफे में समाहित हो गया। सवारी को पारंपरिक मार्ग से गढ़ चौक लाया गया। जगह-जगह श्रद्धालुओं ने सवारी के दर्शन किए और पूजा अर्चना की। गढ़ के अंदर राज परिवार की महिलाओं और अन्य सदस्यों ने भी सवारी की पूजा की।
तोपों की सलामी देकर सवारी की अगवानी की गई। इसके बाद, सवारी करवर रोड स्थित दहेलवाल जी के थान पर पहुंची। वहां देह रूपी सर्प को केत के पेड़ पर विराजमान किया गया। हल्की बरसात के बीच, सवारी के साथ उत्साहपूर्ण माहौल देखा गया और चार दिवसीय मेला शुरू हो गया।
इतिहास और परंपरा
इस परंपरा की शुरुआत 1871 में हुई थी, जब आंतरदा रियासत की रानी को सर्प द्वारा डसने के बाद दहेलवाल जी की तांती बांधी गई थी। आंतरदा के ठिकानेदार ने दरबार को आमंत्रित किया और तेजादशमी के दिन दहेलवाल जी की सवारी की परंपरा की शुरुआत की। 1878 में दहाडय़ा नामक स्थान पर दहेलवाल जी का स्थानक बनाया गया। तब से लेकर अब तक यह परंपरा निरंतर चली आ रही है और ग्रामीणों के बीच गहरी श्रद्धा का प्रतीक बनी हुई है।
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